निकाय चुनाव के कई संकेत, योगी की बढ़ी ताकत; सपा को आत्मचिंतन की जरूरत
छह महीने पहले हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और मौजूदा नगर निकाय चुनाव के नतीजों में भाजपा की विजय को छोड़ दें तो एक अंतर है। अंतर यह कि छह महीना पहले उत्तर प्रदेश में अपनी जीत की नायक सिर्फ और सिर्फ भाजपा ही थी, बेशक राज्य के प्रतिनिधि और पार्टी के शिखर नेतृत्व के नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की भी यह जीत थी, लेकिन मौजूदा नगर निकाय चुनावों की जीत में पार्टी की ओर से अगुआ चेहरा राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ हैं।
संसदीय लोकतंत्र में व्यक्ति केंद्रित राजनीति
यूं तो किसी भी राज्य के प्रशासन का मुखिया वहां का मुख्यमंत्री ही होता है,लेकिन यह हकीकत का सिर्फ एक हिस्सा है। दरअसल हमने जिस संसदीय लोकतंत्र को अख्तियार कर रखा है, उसकी मूल अवधारणा में मुद्दों पर केंद्रित राजनीति ही रही है, लेकिन हकीकत में मुद्दों की बजाय जीत की पूरी राजनीति व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है। संसदीय लोकतंत्र के उत्स केंद्र ब्रिटेन में भी अब चुनाव मुद्दों की बजाय व्यक्तित्वों के इर्द-गिर्द लड़े जाते हैं और जीत-हार का फैसला चुनावी राजनीति में राष्ट्र की विभिन्न राजनीतिक धाराओं की अगुआई कर रही पार्टियों के प्रमुख चेहरों पर ही निर्भर करते हैं। इसीलिए वहां अगर कोई शख्सियत चुनावी मैदान में लोगों के बहुमत का समर्थन नहीं जुटा पाती तो एक तरह से शिखर राजनीति को लेकर उसकी गुंजाइश खत्म हो जाती है, लेकिन अगर उसी शख्सियत के नाम पर जीत हासिल हो जाती है तो वह अपनी घोषित नीतियों पर पूरी ठसक के साथ शासन चलाने का अधिकारी बन जाता है। जाने या अनजाने में हमने भी अपने संसदीय लोकतंत्र में यही परंपरा अपना ली है। बेशक अब भी चुनावी मैदान में राजनीतिक पार्टियां कई बार व्यक्तित्वों पर भारी पड़ती हैं, लेकिन जब वही राजनीतिक पार्टी किसी व्यक्ति के नाम पर जीत हासिल करती है तो उस व्यक्ति की सियासी हैसियत में जबर्दस्त उछाल देखा जाता है। यह दोहराना उचित नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में भाजपा की जीत के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक हैसियत बढ़ गई है।
भाजपा-वामपंथी पार्टियां कांग्रेस से अलग
देखा जाए तो दूसरी पंक्ति के नेतृत्व के संकट से वंशवादी, परिवारवादी पार्टियों के साथ ही कांग्रेस भी जूझती रही है। इस मामले में भाजपा और वामपंथी पार्टियों का चरित्र अलहदा रहा है। उनके यहां दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को लेकर बाकायदा गुंजाइश बनाई जाती रही है। मौजूदा दौर में भाजपा के शिखर पुरुष नि:संदेह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, लेकिन वहां दूसरी पंक्ति के नेता के तौर पर कई शख्सियतें पहले से ही हैं या उभर रही हैं। इनमें तेजी से इन दिनों जो नाम जुड़ा है, वह योगी आदित्यनाथ का है। उनका गुजरात के चुनावों में उतरना या फिर केरल में पार्टी की यात्रओं में तवज्जो देना पार्टी की सोची-समझी रणनीति है। जिस तरह उनका राजनीतिक उपयोग किया जा रहा है, उसका एक संकेत तो यही है कि उन्हें दूसरी पंक्ति के नेता के तौर पर उभारा जा रहा है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र के तकाजों के मुताबिक उनके नाम पर अभी तक एक भी चुनाव न तो लड़ा गया था और न ही उसमें जीत हासिल हुई थी, इसलिए उनके नेतृत्व की व्यापक स्वीकृति की नैतिक और राजनीतिक गुंजाइश अभी बनी हुई थी।
योगी नीति में हो सकता है बदलाव
उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनाव इन संदर्भो में पहले ऐसे चुनाव माने जा सकते हैं, जिन्हें एक तरह से योगी की अगुआई में लड़ा गया। चूंकि उसमें जीत हासिल हुई है, इसलिए अब उनके सामने अपने ढंग से अपनी नीतियों के आधार पर उत्तर प्रदेश में प्रशासन चलाने, राज्य की नीतियों में बदलाव लाने का नैतिक आधार मिल गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि वे निरंकुश हो सकते हैं। दरअसल वे एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के हिस्से हैं, लिहाजा चुनावी जीत के बाद उन्हें पार्टी नीतियों की ही परिधि में अपनी नीतियों की राह कहीं ज्यादा स्वायत्त ढंग से खोजने की गुंजाइश मिल गई है। आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक स्तर पर बदलाव दिखने लगें और उनमें आक्रामकता नजर आने लगे तो हैरत नहीं होनी चाहिए। चुनावी जीत की वजह से अब उन पर सूबाई स्तर पर रहने वाले अंदरूनी दबाव भी कम हो सकते हैं।
निकाय चुनाव और समाजवादी पार्टी
उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों ने एक और तथ्य की ओर इशारा किया है। महज आठ महीने पहले तक राज्य की सत्ता पर काबिज रही समाजवादी पार्टी से लोगों का मोहभंग हुआ है। यादव-मुसलमान का जो समीकरण मुलायम सिंह ने बनाया है, वह अब दरकता नजर आ रहा है। हैरतंगेज ढंग से इस समीकरण का एक बड़ा हिस्सा मुसलमान अब उस बसपा की ओर जाता दिख रहा है, जिसका लोकसभा चुनावों में खाता तक नहीं खुला और विधानसभा चुनावों में वह तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। अलीगढ़ और मेरठ नगर निगमों के मेयर पद पर बहुजन समाज पार्टी की जीत का मतलब साफ है कि मुसलमान मतदाता अब बसपा की ओर भरोसा जता रहा है। वहीं कांग्रेस के प्रथम परिवार के लिए पुश्तैनी सीटें बन चुकी रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस की बुरी गत होना भी जाहिर करता है कि अब कांग्रेस के प्रथम परिवार से इस इलाके के लोगों का मोहभंग होता जा रहा है। इसलिए नगर निकाय चुनावों के संकेत साफ हैं कि जमीनी स्तर पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को बहुत कुछ करना होगा, अन्यथा जनता उन्हें अप्रासंगिक घोषित कर सकती है। वहीं मायावती के लिए संकेत है कि अगर वे अपने अहं को छोड़ें तो भाजपा विरोधी मतदाताओं का बड़ा वर्ग उन पर भरोसा जता सकता है।
यूपी निकाय चुनाव में जीत, गुजरात में भाजपा को फायदा
नगर निकाय चुनावों में जीत का मनोवैज्ञानिक लाभ गुजरात में भाजपा उठा सकती है। हर चुनाव में दो-तीन प्रतिशत मतदाता असमंजस में रहते हैं कि किसे समर्थन दें। चुनावों से ऐन पहले प्रतियोगी पार्टियों में से किसी को ऐसी जीत मिलना ऐसे वोटरों का उसके प्रति मानस बनाने में योगदान देती हैं। यही वजह है कि गुजरात में भाजपा उत्साहित है। वैसे नगर पालिकाओं और निकायों में भी सबसे बड़ा दल बनकर भाजपा ही उभरी है, लेकिन उसकी जीत उतनी बड़ी नहीं है, जितनी लोकसभा या विधानसभा चुनावों की रही। यह संकेत उसके लिए है कि लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए उसे लोगों की आकांक्षाओं पर ध्यान देना होगा।