मालदीव के हंगामे पर भारत की चुप्पी की वजह

30 साल पहले 1988 में मालदीव के राष्ट्रपति मौमुन अब्दुल गयूम ने जब भारत से मदद मांगी थी तो 9 घंटे के भीतर भारत ने वहां अपनी सहायता पहुंचा दी थी. लेकिन इस बार मालदीव में हंगामा पसरा है और भारत चुप है.

क्या भारत को मालदीव के मामले में दखल देना चाहिए? सार्क मुल्कों के साथ भारत के तल्ख होते जा रहे रिश्ते और सार्क की आज की स्थिति पर बीबीसी संवाददाता अभिजीत श्रीवास्तव ने पूर्व विदेश सचिव शशांक से बात की.

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तब मालदीव के राष्ट्रपति ने खुद मदद मांगी थी. जब कोई देश मदद मांग रहा है तो भारत बहुत तेज़ी से मदद करने को तैयार रहता है. ये भारत ने अपने पड़ोसी मुल्कों को आश्वासन दे रखा है. ये सुनामी, भूकंप या स्थिरता जैसे मामलों में होता है.

लेकिन इस बार माहौल कुछ दूसरा है. मुद्दा उनके संविधान का है. जो भी संवैधानिक संस्थाएं हैं उनका आपस में तालमेल नहीं बन रहा है. भारत ने सलाह दी है इस मुद्दे को आपस में सुलझा लें जिसमें संविधान को मान्य मानते हुए स्थिरता बनी रहनी चाहिए.

भारत इसे लेकर अभी सोच में है. अगर पड़ोसी देशों से विचार विमर्श करके बात बनती है कि मालदीव में स्थिति काबू से बाहर जा रही है और वहां संविधान की बहाली और स्थिरता के लिए वहां पर किसी तरह की मदद चाहिए तो बात अलग है.

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आतंकवाद के मुद्दे पर बढ़ी तल्खी
भारत सार्क का सबसे बड़ा देश है. साल 2014 में मोदी की ताजपोशी के लिए पाकिस्‍तान, श्रीलंका, भूटान, अफगानिस्‍तान और कई और देशों के प्रमुख नई दिल्‍ली पहुंचे थे. लेकिन इन चार सालों में आतंकवाद को लेकर ही सार्क देशों के साथ रिश्तों में तल्खी देखने को मिली है.

सार्क देश मिल-जुलकर बातें आगे बढ़ाना चाहते थे. बिजली, सड़क, सैटेलाइट जैसे मुद्दों पर. लेकिन आतंकवाद का मसला जब बहुत बढ़ गया तो भारत ही नहीं अन्य देशों ने भी मना किया कि पाकिस्तान में सार्क सम्मेलन में भाग नहीं लिया.

तो सार्क जो एक अच्छा मंच बन सकता था उसे संभवतः दक्षिण एशिया में चीन का हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए जानबूझ कर महत्वहीन बना दिया गया. क्योंकि अगर सार्क मिलजुल कर रहता तो चीन का हस्तक्षेप बढ़ना मुश्किल होता.

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जब भारत, बांग्लादेश, अफगानिस्तान सभी को लगा कि पाकिस्तान से आतंकवाद के तार जुड़े हुए हैं, उसे किसी तरह से अलग थलग करना पड़ेगा या पाकिस्तान को यह मानना पड़ेगा कि वो और देशों की तरह अपनी पॉलिसी बना कर चले जिससे शांतिपूर्ण तरीके से मसलों को हल किया जा सके.

सार्क की स्थापना ही इसलिए की गई थी कि आपस में सहयोग के जितने भी चैनल हैं उस पर बात की जा सके और उसमें खास कर यह कहा गया था कि द्विपक्षीय मसलों को इसमें नहीं लाया जाएगा.

यहां सभी देशों के शीर्ष स्तर के नेता दक्षिण एशियाई क्षेत्रों के मसले पर आपस में बात कर सकते हैं. लेकिन सार्क द्विपक्षीय रिश्तों के एवज में नहीं था.